मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

26/11 हमले का इंसाफ

आतंकवाद के प्रति दुनिया में जाने -अनजाने भारत की छवि एक सॉफ्ट स्टेट की है लेकिन बीते 21 नवंबर की सुबह 7.36 बजे पुणे की यरवडा जेल में 26/11 के गुनहगार अजमल आमिर कसाब को सूली पर लटकाने के बाद भारत की इस सॉफ्ट स्टेट की छवि में कितना बदलाव आया है, फिलहाल यह कहना जल्दबाजी होगी. लेकिन यह पहल आतंकवाद के खिलाफ जारी जंग में एक टर्निंग प्वाइंट जरूर साबित होगी. आतंकवाद से लड़ाई की सुरंग सैकड़ों किलोमीटर लंबी है, लेकिन इसे पार करने के लिए भारत ने एक छोटा ही सही महत्वपूर्ण कदम उठाया है. कसाब को फांसी देने के पूरे घटनाक्रम को बहुत गोपनीय ढंग से अंजाम दिया गया. इस घटना के बाद अब बहस इस पर भी शुरू हो गई है कि क्या अमेरिका ने पाक में घुस कर जिस प्रकार ओसामा बिन लादेन का काम तमाम किया था, वैसी कोई कार्रवाई क्या भारत कर सकता है? हालांकि फिलहाल यह दूर की कौड़ी है.यह एक सच्चाई है कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का मुकाबला करने के मामले में हम अपने ही हॉफ में खेल रहे हैं. इसका मतलब है कि भारत ने पाकिस्तान को अपने ऊपर हावी होने का मौका दे दिया है. आश्चर्य नहीं कि हम जब-तब अपने ऊपर आत्मघाती गोल कर लेते हैं. यह स्थिति बदलनी चाहिए. कसाब को फांसी देने का फैसला एक प्रस्थान बिंदु बनना चाहिए. राजनीतिक दलों का दृष्टिकोण कुछ भी हो, वे इसका जैसे चाहे अपने हित में इस्तेमाल करें, लेकिन एक देश के रूप में भारत के लिए यह जरूरी है कि वह आतंकवाद के खिलाफ अपनी जानी-पहचानी कमजोरी का हमेशा के लिए परित्याग कर दे. फिलहाल भारत के राजनीतिक नेतृत्व से यह आशा तो नहीं की जा सकती कि वह सेलेक्टिव स्ट्राइक के तहत पाकिस्तान में चल रहे आतंकी शिविरों को निशाना बनाने का भी साहस प्रदर्शित कर सकता है, लेकिन कम से कम अपने देश में तो हमारी रणनीति और नीयत शीशे की तरह साफ होनी चाहिए. क्या आतंकवाद जैसे मुद्दे को लेकर हमें राजनीति करनी चाहिए? जाहिर है इसका जवाब ना में होना चाहिए, पर अपने देश की राजनीति जिस तरह की हो गई है उसमें राजनीतिक दलों से ऐसी अपेक्षा करना व्यवहारिक नहीं लगता. आजादी के छह दशक बाद भी इस देश के मुसलमानों को किस आसानी से पाकिस्तान समर्थक या आतंकवादियों से सहानुभूति रखने वाला बता दिया जाता है, विरोधियों के आरोप को तो एक बार समझा जा सकता है कि उन्हें एक राजनीतिक मकसद से ऐसा करना ठीक लगता है, लेकिन उनके रहनुमाओं का क्या करें जो उनके हित चिंतक होने का दावा करते हुए दरअसल उनके विरोधियों जैसी ही बात करते हैं. बस कहने का अंदाज दूसरा होता है. नतीजा यह है कि भारत के मुसलमानों को अपने विरोधियों और समर्थकों, दोनों के सामने हर समय साबित करना पड़ता है कि वे पाकिस्तान या आतंकवादियों के समर्थक नहीं हैं. संसद के शीतकालीन सत्र आरंभ होने के ठीक एक दिन पहले कसाब को फांसी दी गई. सरकार ने यह फैसला बहुत सोच विचार कर लिया, राजनीति में फैसले के समय की बड़ी अहमियत होती है. जाहिर है कि इतना बड़ा फैसला सरकार ने बहुत सी बातों को ध्यान में रखकर ही किया होगा. दया याचिका रद होने से लेकर फांसी देने तक सारी प्रक्रिया को गोपनीय रखा गया. सुरक्षा और कानून एवं व्यवस्था की दृष्टि से यह उचित कदम था. क्या कसाब को फांसी देने का फैसला करते समय सरकार के मन में मौजूदा राजनीतिक हालात का ध्यान नहीं रहा होगा. मुंबई हमले को चार साल होने में महज पांच दिन शेष रहे थे, जब कसाब को फांसी दी गई. 26 नवंबर, 2008 को महाराष्ट्र पुलिस के बहादुर सिपाही तुकाराम ओंबले ने कसाब को न पकड़ा होता तो? कसाब के अलावा हमारे पास क्या है? चार साल में भारत सरकार हमले की साजिश में शामिल लोगों की आवाज का नमूना भी हासिल नहीं कर पाई है. उन्हें भारत लाना और सजा दिलाना तो दूर की बात है. चंद दिनों पहले तक मुंबई हमले पर पाकिस्तान पर कोई दबाव डालने में नाकाम रहने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पाकिस्तान यात्रा की तैयारी हो रही थी. जो बात पाकिस्तान कहता था वही अब हमारे नेता और मंत्री कहने लगे हैं कि पाकिस्तान भी आतंकवाद का शिकार है-बिना इस बात का विचार किए कि दोनों के हालात में जमीन-आसमान का फर्क है. हम जिस आतंकवाद को झेल रहे हैं वह पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और उसकी सेना की उपज है. पाकिस्तान से संबंध बेहतर हों, इससे किसी को इन्कार नहीं हो सकता, पर सवाल है कि किस कीमत पर. क्या देश की सुरक्षा और आत्मसम्मान की कीमत पर?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें