मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

एक था टाइगर

17 नवंबर को खबरिया चैनलों पर अचानक ब्रेकिंग न्यूज आई, शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे का निधन. हालांकि बाला साहेब पिछले कई दिनों से बीमार थे और इस खबर से कोई आश्चर्य नहीं हुआ, लेकिन हां, इस खबर ने मुझे 20 साल पीछे नेपथ्य में जरूर भेज दिया. बाबरी मस्जिद के ढांचे के ध्वस्त होने के बाद पूरे देश में सांप्रदायिक हिंसा व तनाव का आलम था. 16-17 साल का मेरा किशोर मन भी इन घटनाओं से पृथक नहीं था. तब पश्चिम बंगाल में वामपंथी विचार धारा संस्कार का रूप ले रही थी, ऐसे में वहां कोई बड़ी सांप्रदायिक घटना तो नहीं घटी. अलबत्ता, घर के ब्लैक एंड व्हाइट टीवी सेट पर खबरों के लोग दीवाने दिखते थे. रात नौ बजे दूरदर्शन के समाचार बुलेटिन में हिंदूत्व के पैरोकार के रूप में दहाड़ते बाल ठाकरे किसी हीरों से कम नहीं लगते थे. उनकी बेबाक और उत्तेजक भाषण वामपंथी विचार धारा के संस्कार ग्रहण करते मेरे जैसे किशोर को पथविचलित करने का भरपूर कोशिश करता. वास्तव में समय के साथ सब कुछ बदलता है, मेरी सोच भी बदली और बाला साहेब की एक हिटलरी अंदाज वाले नेता के रूप में उनकी छवि मेरे मन में बनती गई. बाद में पता चला कि उनके रोल माडल ही हिटलर थे. यह पता चलते ही सारे गिले शिकवे काफूर हो गए और एक नेता से रही सही उम्मीद जाती रही. बाद में उनकी क्षेत्रवाद की राजनीति ने उनसे मोहभंग कर दिया. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनके व्यक्तित्व की छाप मेरे जेÞहन से लोप हो जाए. जब रामगोपाल वर्मा की फिल्म सरकार राज आई, जिसमें बिग बी ने बाला साहेब के जीवन को उकेरने की कोशिश की थी, उस फिल्म के पहले दिन के पहले शो को देखने से स्वयं को रोक नहीं सका. हालांकि यह बात मुझे बार-बार बेचैन करती थी कि किस तरह एक विवादित छवि वाला कोई व्यक्ति समाज में कड़वाहट घोल कर, क्षेत्रवाद की भावना भड़का कर और लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति ठेंगा दिखाता हुआ पत्थर की मानिंद खड़ा रहे और लोगों के दिल पर राज करता रहे. हालांकि इस बात का उत्तर आज भी नहीं तलाश पाया हूं. ‘आमची मुंबई आहे’ का नारा के प्रेरणास्रोत रहे बाला साहेब ने 60 के दशक में भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद की भावना का बीजारोपण किया, वह भी तब, जब कि राष्ट्र क्षेत्रीयता और भाषाई संघवाद के खिलाफ एकजुट हो कर विश्व में अपनी नई पहचान गढ़ने का प्रयास कर रहा था. यह वह समय था जब बंगाल, गुजरात, पंजाब, तमिलनाडु में भाषा के नाम पर स्थानीय स्तर पर क्षेत्रवाद के विषबेल को फैलाने में कुछ लोग लगे थे, जिनका मुख्य उद्देश्य नेहरु के मिशन राष्ट्र-निर्माण को ध्वस्त करना था. बावजूद इसके क्षेत्रीयता का भाव महाराष्ट्र में तेलगूभाषी आंध्र, पंजाबीभाषी पंजाब और गुजरातीभाषी गुजरात से कहीं ज्यादा था. महाराष्ट्र के पराक्रमी और मराठों को गौरवान्वित करने वाले शिवाजी, तिलक, गोखले, जस्टिस रानाडे के प्रति मराठियों की भावना को बाला साहेब ने शिवसेना के जरिये बड़ी बारीकी से उकेरा. तब के संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से इसे और बल मिला. जो राजनीतिक सोच उस दौर में महाराष्टÑ में जगह बना रही थी उसमें लोकतंत्र के प्रति अविश्वास, संसदीय राजनीति के प्रति उपहास, राजनीतिक प्रणाली के प्रति घृणा, प्रांतीय संकीर्णता, प्रांतीय सांप्रदायिकता, शिवाजी के मराठापन, हिन्दुत्ववाद और हिटलर के प्रति लगाव. बाल ठाकरे ने इस मिजाज को समझा और अपनाया. साठ के दशक में मुंबई की हकीकत यही थी कि व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे. दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगों का कब्जा था. टैक्सी और स्पेयर पार्ट्स के व्यापार पर पंजाबियों का कब्जा था. पढ़ाई-लिखाई के पेशों में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी. भोजनालयों में कन्नड़वासी और ईरानियों का बोलबाला था. भवन निर्माण में सिंधियों का बोलबाला था और इमारती काम में ज्यादातर लोग कम्मा यानी आंध्र के थे. ऐसे में मुंबई का मूल निवासी दावा तो करता था ‘आमची मुंबई आहे’, लेकिन मुंबई में वह कहीं नहीं था. इसलिए उनके लिये मुबंई के धरतीपुत्रों के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत में कोई रिश्ता जोड़ना भी जरुरी नहीं था. 60 के दशक में मुंबई में अधिकांश निवेश पूंजी प्रधान क्षेत्रों में हुआ, जिससे रोजगार के मौके कम हुये. फिर साक्षरता बढ़ने की सबसे धीमी दर महाराष्ट्रीयनों की ही थी. इन परिस्थितयों में नौकरियों में पिछड़ना महाराष्ट्रियनों के लिये एक बडा सामाजिक और आर्थिक आघात था. बालासाहेब ठाकरे ने इसी मर्म को छुआ और अपनी पत्रिका मार्मिक के जरीये महाराष्ट्र और मुंबई के किस रोजगार में कितने मराठी हैं, इसका आंकड़ा रखना शुरू किया. ठाकरे ने इसके खिलाफ जो राजनीतिक जमीन बनानी शुरू की. उसमें मुसलमान और दक्षिण भारतीय सबसे पहले टारगेट हुये. ठाकरे की ठसक का ही कमाल था कि महाराष्ट्र और देश के प्रतीकों पर उन्होंने सीधा हमला बोला और खुद को तलवार की उस धार पर ला खड़ा किया, जहां खारिज करने वालों के केन्द्र में भी ठाकरे और खारिज करने वालों के खिलाफ खड़े मराठी मानुष के केन्द्र में भी ठाकरे. अर्थात महाराष्ट्र के केंद्र में बाल ठाकरे. बाल ठाकरे को नब्बे के दशक में लगने लगा था कि महाराष्ट्र के बाहर चाहे उनकी पैठ ना हो लेकिन केन्द्र की सत्ता जिस तरह गठबंधन की वैशाखी पर आ गई है, उसमें महाराष्ट्र में केन्द्रित रह कर भी सशक्त दखल दे सकते हैं. महाराष्ट् की यह त्रासदी भी रही है कि यहां आंदोलनों की भूमिका अगर सामाजिक परिप्रेक्ष्य में सकारात्मक रही है तो उसी आंदोलन की पीठ पर सवार हो कर संसदीय राजनीति नकारात्मक रही है. बालासाहेब ठाकरे तो हद तक नकारात्मक हुये. बाल ठाकरे यह कहने से नहीं घबराये कि मतपेटी के माध्यम से हमेशा जनतंत्र का सही रूप प्रगट नहीं हो पाता....मैं अपने विचार तब तक नहीं बदलूंगा जब तक एक नई, हर तरह से सुरक्षित जनतांत्रिक पद्धति के परिणाम नहीं मिलते, जो मैं स्वीकार कर सकूं. हमारे देश में जनतंत्र जड़े नहीं जमा सका है और जब तक यह नहीं हो जाता, मेरी राय में इस देश में उदार तानाशाही की जरुरत है. बालासाहेब ठाकरे का यह बयान 1967 के चुनाव के वक्त का है, जिसे 19 अगस्त 1967 को नवकाल ने छापा था. लेकिन बाल ठाकरे यहीं नहीं रुके थे,उन्होंने कहा , हां मै तानाशाह हूं, इतने शासकों की हमें क्या जरुरत है? आज भारत को तो हिटलर की आवश्यकता है...भारत में लोकतंत्र क्यों होना चाहिये ? यहां तो हमें हिटलर चाहिये. नकारात्मक तरीके से राजनीति पकड़ने में माहिर बाल ठाकरे ने आपातकाल में इंदिरा गांधी का साथ दिया. बीते चालीस साल में इसी राजनीति को करते हुये बाल ठाकरे सत्ता तक भी पहुंचे और लोकतांत्रिक संसदीय जुबान बोलने पर सत्ता हाथ से गयी भी. जो राजनीतिक जमीन बाल ठाकरे ने शिवसेना के जरीय बनायी संयोग से वह जमीन और मुद्दे तो वहीं रह गये...शिवसेना और बाल ठाकरे उससे इतना आगे निकल गये कि उनका लौटना मुश्किल हो गया. रोजगार और क्षेत्रीयता का जो संकट साठ के दशक में था, वर्ष 2012 में वही क्षेत्रीयता अब रोजगार को भी साथ जोड़ चुकी है. मिलों के बंद होने और जिले दर जिले महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगमों में लगे उद्योगों के बंद होने से जहां रोजगार गायब होते गये वही भू-माफिया राजनीति के नये औजार के तौर पर उभरे. इस बड़े तबके को कैसे सड़क पर उतार कर उसकी भावनाओं को हथियार बनाना है, यह राज ठाकरे ने अपने चाचा बाल ठाकरे की छत्रछाया में गुजारे चालीस साल में बखूबी सीखा. अब भी सवाल 60 के दशक का ही मराठों के सामने है, लेकिन अब बाला साहेब नहीं हैं- जो बगैर लाग-लपेट के कह सके, आज भारत को तो हिटलर की आवश्कता है. ....भारत में लोकतंत्र क्यों होना चाहिये ? यहां तो हमें हिटलर चाहिये. संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ यह दहाड़ एक बाघ की थी, जो घात लगा कर वार करना भी जानता था.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें