शुक्रवार, 19 मार्च 2010

भारत में शीघ्र खुलेंगी विदेशी शिक्षा की दुकानें

‘सर, आई एम मनीष भार्गव, एंड आई हैव कंप्लीटेड पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट फ्राम हार्वर्ड यूनिवर्सिटी.’
‘ओके, प्लीज टेक योर सीट.’
‘थैंकयू सर.’
‘इन नवंबर, विच फ्रूट इज पॉपुलर इन लंदन.’
‘आई डोन्ट नो सर, बिकाज, आई हैव कंप्लीटेड आवर कोर्स फ्राम हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, डेल्ही कैंपस.’


जी, हां. आने वाले कुछ वर्षों के बाद कुछ इसी तरह के सवाल-जवाब आपको सुनने को मिल सकते हैं. जब कोई साक्षात्कारकर्ता किसी नौकरी के आवेदक का साक्षात्कार लेगा तो आवेदक खुद को हार्वर्ड या ड्यूक यूनिवर्सिटी से पढ़ा हुआ बताएगा लेकिन जब उससे संबंधित देश के संबंध में सवाल किया जायेगा तो वह खुद को संबंधित यूनिवर्सिटी के भारतीय कैंपस से पढ़ा हुआ बतायेगा. ऐसा इसलिए कि भारत सरकार ने बहुप्रतीक्षित विदेशी शिक्षण संस्थान - रेग्युलेशन ऑफ एंट्री एंड ऑपरेशन, मैनटेनेंस ऑफ क्वालिटी एंड प्रीवेंशन ऑफ कमर्शियलाइजेशन बिल 2010 को हरी झंडी दिखा दी है और उम्मीद की जा रही है कि इसी सत्र में यह बिल पास भी हो जाएगा. दुनिया भर के विश्वविद्यालय ज्ञान बेचने की दुकान धड़ल्ले से चलाएंगे.
आजादी के बाद से ही हम देश की शिक्षण प्रणाली को मैकाले की शिक्षा प्रणाली से मुक्त कराने के प्रयास का दावा करते रहे हैं. कई विद्वानों द्वारा नई शिक्षा प्रणाली की जरूरत के लिए अकाट्य व शानदार तर्क रखे गए. बावजूद इसके, पिछले छह दशक के दौरान हम सिर्फ बयानबाजी तक सिमट कर रहे गए. तकरीबन सौ वर्ष पूर्व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक हिंद स्वराज में मैकाले ब्रांड यूरोपीय शिक्षा का विरोध किया था और सच्चा मनुष्य बनाने वाली भारतीय शिक्षा पद्धति की आवश्यकता पर बल दिया था. भारतीय सभ्यता और संस्कृति ज्ञान के मंदिर की रही है न कि दुकान की. मैकाले की शिक्षा प्रणाली का अनुभव हमारे पास पिछले छह दशक का है और हम गुरुकुल से शिक्षा की दुकान तक का सफर तय कर लिए. फैशन, प्रतिस्पर्धा और आधुनिकता के पैरोकारों ने इस शिक्षा नीति का जोरदार समर्थन किया, बगैर भारतीय सभ्यता और संस्कृति के संरक्षण की चिंता किए.
आज पूरे देश में उच्च शिक्षा का माध्यम सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी है. जब कि उच्च शिक्षित लोगों को अधिकांश काम गैर अंग्रेजी जानने वालों के लिए या उसमें ही करनी है. इसे कुछ इस तरह समझ सकते हैं कि आईआईएम या दूसरे भारतीय प्रबंधन संस्थानों से एमबीए की डिग्री लेने वाले छात्रों में से तकरीबन 11 प्रतिशत छात्रों को ही देश से बाहर नौकरी मिलती है बाकी के 89 प्रतिशत छात्र भारतीय कंपनियों में अपनी सेवाएं देते हैं. इन्होंने अपनी पढ़ाई अंग्रेजी में की है, लेकिन इन्हें वैसे समुदाय के लिए अपनी सेवाएं देनी है जिसे अंग्रेजी या अंग्रेजीयत से कोई लेना देना नहीं है. उल्लेखनीय है कि एक सौ दस करोड़ लोगों की आबादी वाले इस उपमहाद्वीप में तकरीबन ढ़ाई करोड़ लोगों का खाना-पीना, बोलना-हंसना-रोना अंग्रेजी है. तो क्या ऐसा नहीं हो सकता कि प्रबंधन की शिक्षा के लिए वैकल्पिक भाषा के तौर पर अंग्रेजी रखी जाएं और मुख्य शिक्षा हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में रखी जाए. चूकि भारत बहुभाषी देश है. इसलिए प्रंबधन के जिन छात्रों का उद्देश्य देश से बाहर जा कर करियर बनाना है वह अपनी शिक्षा अंग्रेजी में लें, बाकी जिन छात्रों को देश में ही या फिर किसी राज्य विशेष में रह कर करियर बनाना है वे हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में शिक्षा ले सकते हैं. इससे वह अपने कार्य निष्पादन कौशल में भी बेहतर कर सकेंगे. लेकिन ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि अंग्रेजीयत हमारे जड़ तक अपनी पैठ बना चुका है. अंग्रेजी राज ने आत्महीनता की ग्रंथि हमारे अंदर भर दी है और स्थिति यह हो गई कि लंदन से पढक़र लौटे सभी लोग महान हो गए और भारत में पढ़े सभी विद्वान देशी गंवार. बुनियादी सवाल है कि आक्सफोर्ड या हार्वर्ड की शिक्षा ही क्यों विश्वस्तरीय है? जेएनयू, बीएचयू या आईआईएम की शिक्षा क्यों नहीं है?
वरिष्ठ स्तंभकार और उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री हृदयनारायण दीक्षित देश में विदेशी विश्वविद्यालय को गैर जरूरी और भारतीय सभ्यता पर पश्चिमी सभ्यता का अतिक्रमण मानते हैं. उनके अनुसार इंग्लैंड को छोड़ यूरोप के किसी भी देश की राजभाषा अंग्रेजी नहीं है, लेकिन भारत में यही अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा है. भारत में लंबे समय तक अंग्रेजी राज रहा, तब यूरोपीय शिक्षा का दबदबा था. भारत अब संप्रभु राष्ट्र है. भारत अपनी शिक्षा पद्धति, राष्ट्रभाषा और अपने विज्ञान दर्शन को विश्वस्तरीय सिद्ध करने का दावा क्यों नहीं ठोंकता? भारत का विज्ञान और दर्शन वैदिककाल से ही विश्वस्तरीय है.
एडलर युंग, मैक्समूलर ने भारतीय तत्वज्ञान को अंतरराष्ट्रीय बताया और कृतज्ञता भी व्यक्त की थी. गोपाल कृष्ण गोखले, तिलक, गांधी और विपिन चंद्र पाल ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति व सभ्यता संस्कृति को कभी भी विश्वस्तरीय नहीं माना. अंग्रेजी-राज ने भारत को अंग्रेजनिष्ठ प्रजा बनाए रखने के लिए ही पंथनिरपेक्ष प्राचीन शिक्षा का ढांचा तहस-नहस किया था. अंग्रेजी राज के पहले यहां लाखों स्कूल थे, उच्च शिक्षा के केंद्र भी थे. सर थॉमस मुनरो ने 1822 में शिक्षा पर सर्वेक्षण करवाया था. मद्रास प्रेसीडेंसी के 21 जिलों में 1094 उच्च शिक्षा संस्थान थे. ईसाई मिशनरी एडम की रिपोर्ट (1893) के अनुसार बंगाल और बिहार के प्रत्येक गांव में स्कूल थे. बंगाल के प्रत्येक जिले में उच्च शिक्षण संस्थाएं थी. मुंबई और पंजाब में भी वही स्थिति थी. लेकिन यूरोप की शिक्षा व्यवस्था मध्यकाल तक चर्च के नियंत्रण में थी. भारत की शिक्षा का उद्देश्य मुक्त-समाज था. चीनी यात्री फाह्यान (5वीं सदी) ने भी अपने यात्रा विवरणों में भारतीय शिक्षा तंत्र की प्रशंसा है. उसने लिखा है कि नालंदा विश्वविद्यालय अपने समय में विश्वस्तरीय था. चीनी यात्री ह्वेनसांग व इत्सिंग ने भी इसका वर्णन किया है. परमार राजा धर्मपाल ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की. भोज ने धार में भोजशाला की स्थापना की. अर्थशास्त्र के लेखक कौटिल्य तक्षशिला में प्रोफेसर थे. भारत का पहला अखिल भारतीय राष्ट्र-राज्य बनाने वाले चंद्रगुप्त मौर्य और विश्व के प्रथम व्याकरणाचार्य पाणिनि इसी विश्वविद्यालय के छात्र थे. इसके भी पहले उत्तरवैदिक काल की शिक्षा व्यवस्था और भी विश्वस्तरीय थी. तैत्तिरीय उपनिषद् में एक पूरा खंड शिक्षा पर है. यहां उच्च शिक्षाविदों की प्रशंसा है, वे स्वराज्य पाते हैं, विज्ञानपति हो जाते हैं. भारत में विदेशी के प्रति ललक है, स्वदेशी के प्रति हीनभाव है. सम्प्रति अमेरिकी विश्वविद्यालयों में सबसे ज्यादा विदेशी छात्र भारत के ही हैं. यूरोप के देशों में भी भारतीय छात्रों की बहुतायत है. भारत बड़ा बाजार है. लेकिन हम भारतीयों और भारत सरकार को अब यह विचार करना होगा कि कहीं हम पश्चिम के नव उपनिवेशवाद का समर्थन करते हुए पुन: 1947 के पहले की सी स्थिति की ओर तो नहीं मुड़ रहे हैं. कारण कि शिक्षा एक ऐसी चीज होती है जो व्यक्ति, समाज और देश के वैचारिकता को दिशा देती है. लेकिन केंद्र सरकार शिक्षा को भी बाजारू उपभोक्ता माल समझ रही है सरकार को इस मानसिकता से उबरना होगा. साथ ही भारतीय शिक्षा संस्थाओं के प्रवेश, संचालन और गुणवत्ता के हितों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी सरकार की है. सरकार को यह भी याद रखना होगा.

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