बुधवार, 16 अप्रैल 2014

राजनीतिक सत्ता से ही समाज को हांकने का खेल


16वीं लोकसभा के लिए अब तक चार चरण के मतदान हो चुके हैं और पांचवें चरण के मतदान के लिए भी लोगों में खासा उत्साह देखा जा रहा है। लोकतंत्र के इसी मिजाजा को भारतीय संसदीय राजनीति की खूबसूरती मानी जाती है। वास्तव में, 2014 का यह आम चुनाव कुछ खास हो गया है। खास होने का कारण भारी संख्या में इस बार पहली बार वोट डालने वाले युवाओं को लेकर है। गौर करने वाली बात है कि जब देश का पहला आम चुनाव 1952 में हुआ था तब कुल 10 करोड़ 59 हजार मत पड़े थे। 2014 के चुनाव में लगभग इतने ही नये मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। इस तरह देखा जाए तो आजाद हिंदुस्तान के छह दशक बीतते बीतते 1952 का छह हिंदुस्तान खड़ा हो गया है। पहले आम चुनाव में मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 32 लाख 12 हार 343 थी। और 2014 में यह संख्या 81 करोड़ के पार हो गई है। जाहिर है इतने वोटरों के वोट से चुनी हुई कोई भी सरकार हो, उसे पांच बरस तक राज करने का मौका मिलता है और अपने राज में वह कोई भी निर्णय लेती है तो उसे सही माना जाता है। इतना ही नहीं सरकार अगर गलत निर्णय लेती है और विपक्ष विरोध करता है तो भी सरकार यह कहने से नहीं चूकती कि जनता ने उन्हें चुना है। अगर जनता को गलत लगेगा तो वह अगले चुनाव में बदल देगी। लेकिन विचारणीय और यक्ष प्रश्न तब खड़ा हो जाता है, जब इसी जनता द्वारा चुनी सरकार नीतियों के नाम पर करोड़ो- अरबो का वारा-न्यारा करती है, और भ्रष्टाचार से लड़ाई में खुद को आगे भी दिखाने की कोशिश करती है। तो सवाल यही है कि जिस चुनाव के जरीये देश में सत्ता बनती बिगडती हो क्या वह चुनाव तंत्र अपने में सुधार की मांग नहीं करता? सिर्फ चुनाव आयोग की कडाई से हालात में सुधार या फिर भ्रष्ट होते संस्थानों को कानूनी दायरे में कडाई बरतने भर से सुधार आ जायेगा, इस बात की क्या गारंटी है? दरअसल, मुश्किल यही है कि देश में समूचा संघर्ष सत्ता पाने के लिये ही हो रहा है और राजनीतिक सत्ता को ही हर व्यवस्था में सुधार का आधार माना जा रहा है। लोभी समाज को ठीक करने की जगह जब राजनीतिक सत्ता से ही समाज को हांकने का खेल खेला जा रहा हो तो फिर दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के लोकतंत्र पर दाग लगने से बचायेगा कौन यह अभी तो एक पहेली बनी हुई है । क्योंकि देश तो 2014 के आम चुनाव में ही लोकतंत्र का पर्व मनाने निकल पड़ा है। जहां चुनाव आयोग 3500 करोड खर्च करेगा। और राजनीतिक दल 30,500 करोड़ । फिर आप ही कल्पना किजिए कि अंजाम-ए-गुलिश्ता क्या होगा?

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